शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

NUKKAD NATAK


नुक्कड़  नाट                                                                                                   १)     हर तरफ गन्दगी का ढेर है,
इन लोगों को समझाने में वक्त मत कर बर्बाद-२
चल-चल हो रही देर है.
२) ठहरो-ठहरो ,
ज़रा उधर तो देखो ,
वे लोग अन्न का अपमान कर रहे हैं.
और उधर बच्चे , भूख से तड़प –तड़पकर
मर रहे हैं.
३ )  उस बच्चे ने जितना खाया नहीं , उससे ज्यादा
थाली में छोड़ दिया  है.
अरे, ये क्या हुआ, उस बेबस लाचार माँ ने, अपने फूल से बच्चे को
भूख से बिलखता छोड़ दिया है.
४)  ये बीमार बूँद भर पानी को मोहताज़ है,
और वहाँ तो देखो , वे लोग कितना
पानी बर्बाद  कर रहे हैं ,
लगता है इन लोगों की आँखों में,
न शर्मिंदगी है ,न लाज है. न लाज है.

५ ) ऐसा लगता है , ये सब लोग  स्वार्थी हो चुके हैं ,
इन्हें कल की फिकर नहीं ,
दोनों हाथों से लुटा रहे हैं
जो संसाधन आज हैं.. आज हैं.
६)  सबको अपनी-अपनी पड़ी है,
ये कोई नहीं देखता कि,
 एक माँ के लिए कितनी मुश्किल घड़ी है.
हमारी धरती माँ प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग
के जाल में जकड़ी पड़ी है.
७)जिस माँ ने हमें जीवन दिया,
हमने उसे ही मौत के मुँह पे
लाकर खड़ा किया .
८ ) उस माँ ने तो हर पल हमें अपना समझा ,
और हमने उसके जल, उसके अन्न, उसकी जीवन
दायिनी हवा की बर्बादी को ही
अपनी ज़िदगी का सबसे अहम
सपना समझा.






सोमवार, 14 जनवरी 2013

VIVEKANAND NATAK


                      विवेकानंद  (नाटक)
सूत्रधार : आज हम पश्चिमी संस्कृति के आकर्षण में अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं. जब  देश आजाद हुआ. संविधान निर्माताओं ने बड़े जतन से भारत के लिए संविधान का निर्माण किया .
उन्होंने एक समृद्ध ,संपन्न भारत का सपना देखा. लेकिन हमने उनके सपनों को भुला दिया . आज चारों ओर अशिक्षा, भुखमरी, स्वार्थ ,लालच, गरीबी ,भ्रष्टाचार का ही बोलबाला अपने चरम पर है. हम अपनी संस्कृति से प्रेम करना जैसे भूल ही गए हैं . आज हर तरफ अपने-अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए कोहराम मचा हुआ है. धर्म का सही अर्थ तो जैसे सभी भूल ही गए हैं. ऊँच-नीच का भेदभाव आज भी कायम है. ऐसे में हमें याद आती है उस महान विभूति की जिसने विश्व को भारतीय संस्कृति का लोहा मानने पर विवश कर दिया.       जी हाँ, हम बात कर रहे हैं प्रकाण्ड विद्वान स्वामी विवेकानंद के बारे में. हम सभी ने इनका नाम ज़रूर सुना
है पर भारतीय संस्कृति में उनके अमूल्य योगदान के बारे में शायद कम जानते हैं . आज प्रस्तुत किये जाने वाले नाटक में हम स्वामी जी के जीवन की उन्हीं घटनाओं को आपके सामने रखने जा रहे हैं जिनसे आप उनकी महानता को समझ सकें .अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा लेने के पश्चात स्वामीजी भारत भ्रमण पर निकलते हैं. अनेक लोग उनके साथ चल पड़ते हैं . अपने शिष्यों को धर्म और ईश्वर का सही अर्थ बताते हुए वे कहते हैं सभी मनुष्यों में एक ही ईश्वर का निवास है . सच्चा भक्त मनुष्यों में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करता.
और ..............
                                   पहला दृश्य
स्वामीजी : ऊपर है वो भी. अखिल विश्व वो दिशातीत वो , विश्वम्बर है. ब्रह्म अमर है, ब्रह्म अजर है .
विश्व का इतिहास कुछ ऐसे लोगों का इतिहास है , जिन्हें खुद पर विश्वास था. विश्वास मानुष के  भीतर छुपे देवत्व को प्रकट करता है. तुम कुछ भी कर सकते हो,तुम तभी असफल होते हो ,जब अपनी अनंत शक्ति को प्रकट करने का पूरा प्रयास नहीं करते.एक व्यक्ति या कोई देश, जब अपने ऊपर से विश्वास खो देता है तो मृत्यु आती है. इसलिए पहले स्वयं पर विश्वास करो..... और फिर ईश्वर पर. मुठ्ठी भर शक्तिशाली लोग.... पूरे विश्व
को हिला सकते हैं . इसलिए साहसी बनो. साहस सबसे बड़ा सदाचार है. हमेशा पूरा सत्य बोलो. बिना किसी भेदभाव के, बिना डरे, बिना घुमाए-फिराए. और बिना कोई समझौता किए........ अब रात हो चली है ...आप लोग अपने घरों को जाएँ, ..... मैं कल फिर आऊँगा,...... यहीं.
(सब चले जाते हैं )
एक व्यक्ति : (डरते हुए) स्वामीजी.....
स्वामीजी : क्या है ?
व्यक्ति : स्वामीजी , आपने कल से कुछ नहीं खाया है. मैं नीच जाति का हूँ स्वामीजी, इसलिए पकाकर नहीं
लाया. आप चाहें खुद ही पका लें, मैं लकड़ी लाए देता हूँ.
स्वामीजी : तुम बहुत दयालु हो ........ आओ ....... बहुत ही दयालु . अरे, तुम इसे पकाकर मुझे दो न .
हम दोनों बल्कि मिलबाँटकर खा लेंगे.
व्यक्ति : पर मैं तो नीच जाति का हूँ स्वामीजी. आप मेरे हाथ का पका कैसे खाएँगे ?
स्वामीजी : तुम मेरे भाई हो, तुममे मुझे भगवान नज़र आता है. देखो,अगर तुम मुझे पकाकर खिलाओगे न,
 तो मुझे लगेगा कि तुमने मेरा सम्मान किया है.... अरे ,नहीं-नहीं.. शक्तिशाली और कमज़ोर, ऊँच और नीच.
 सबके पीछे वही अनंत आत्मा है. जो मनुष्य की अनंत शक्ति को श्रेष्ठ और महान बनाने का आश्वासन देती है. इसीलिए अपने भीतर छिपे हुए ईश्वर की घोषणा करो. उसे अस्वीकार मत करो. जाओ पकाकर लाओ..

सूत्रधार : इसके बाद स्वामीजी महाराज मंगल सिंह के दरबार में जाते हैं. वहाँ क्या होता है चलिए अगले
        दृश्य में देखते है.......
 मंगल सिंह : ( हाथ में बन्दूक लिए हुए) )स्वामीजी,..... सुना है आप बहुत बड़े विद्वान हैं, चाहें तो आराम से
 खा- कमा सकते हैं, फिर आपके हाथ में यह भिक्षा पात्र. हूँ.. किसलिए ?
स्वामीजी : आप राजा हैं , अपना राज-काज भूलकर अंग्रेजों के साथ शिकार और तफरीह में अपना समय क्यों नष्ट करते है........ केवल आनंद के लिए ही न ?
मंगल सिंह : हूँ .हूँ ..हूँ (हँसी) आपके ऋषि मुनि भी अपना सारा जीवन व्यर्थ करते हैं.. पूजा-पाठ और ध्यान में,
केवल अपने आनंद के लिए न.. हूँ ?
स्वामीजी :  किन्तु ,...... एक जानवर भी दूसरे जानवर को बिना प्रयोजन नहीं मारता. फिर.......आप क्यों
मारते हैं उन्हें ? मुझे यह अर्थहीन लगता है.
मंगलसिंह : अर्थहीन , हूँ...हूँ..हूँ..(हँसी) हमें मूर्ती पूजा अर्थहीन लगती है. ये लोहे के टुकड़े ,ये पत्थर,ये लकड़ी,
ये मिट्टी के लोंदे को भगवान मानकर इन्हें पूजना, हमें समझ में नहीं आता ? दिस इज नॉनसेंस हूँ..हूँ..हूँ..(हँसी)
क्या है ये ?
स्वामीजी: (एक तस्वीर की तरफ इशारा करते हुए ) ये तस्वीर किसकी है ?
मंगल सिंह : हमारे पिताजी की .
स्वामीजी : क्या तुम इस पर थूक सकते हो ?
मंगल सिंह : हमारे पिताजी पे ?
स्वामीजी : ये पिताजी कहाँ हैं ? ये तो उनकी तस्वीर है... सिर्फ एक कागज का टुकड़ा, रक्त और मांस का
पिंड नहीं.... फिर भी तुम्हें ... इस तस्वीर में, अपने पिताजी के दर्शन होते हैं... होते हैं कि नहीं ?
मंगलसिंह :  होते हैं ..... होते हैं...
स्वामीजी : महाराज मंगलसिंह जी , इसी तरह .. एक भक्त , कोई धातु ,लकड़ी, मट्टी या पत्थर के टुकड़े को
नहीं पूजता. उसमें उसे, अपने भगवान के दर्शन होते हैं.  विश्वास अंधा है , अनुभव ही सत्य है.
मंगलसिंह : (पश्चाताप करते हुए) विश्वास अंधा है .........अनुभव ही सत्य है.... स्वामीजी.. आपने मेरी आँखें
खोल दी. मेरी आँखें खोल दी, आपने स्वामीजी. 

 सूत्रधार : इस दृश्य को देखकर आप समझ ही गए होंगे कि ईश्वर... मूर्तियों में नहीं, हमारी भावनाओं में
 निवास करता है. आइये आगे चलते हैं . स्वामीजी भारत भ्रमण करते हुए अपने प्रिय खेतड़ी के महाराज
  के यहाँ पहुँचते हैं. देखते हैं अगला दृश्य ...........
 खेतड़ी-महाराज : मेरी एक प्रार्थना है ,इसे आप एक ऐसे व्यक्ति का प्रेम भी कह सकते हैं, जो सबसे अधिक आपको चाहता है, कहिये आप स्वीकार करेंगे ?
स्वामीजी : कहें तो सही महाराज.
खेतड़ी महाराज : आप मुझे बेटा बुलाइए, जैसे आप हमेशा बोलते हैं. भले ही मैं खेतड़ी का महाराज क्यों न हूँ .
आप मेरे स्वामी हैं, आपके लिए हमेशा मैं आपके पुत्र जैसे रहूँगा .
स्वामीजी :अच्छा बेटे ,कहो.
खेतड़ी महाराज : आज से आप स्वामी विवेकानंद के  नाम से पुकारे जाएँगे. क्योंकि आप आनंद और ज्ञान
के वाहक हैं. स्वामी.. यह नाम आपके अनुकूल है. कहिये आप स्वीकार करते हैं ?
स्वामीजी  : किया भाई, किया.
खेतड़ी म : मुझे मालूम था आप स्वीकार करेंगे. आप अपने स्नेही जनो की प्रार्थना कभी इंकार नहीं करते.
एक बात और है. मैंने सुना है अमरीका में  शिकागो नामक एक शहर है. वहाँ विश्व के प्रमुख धार्मिक नेताओं का एक बहुत बड़ा सम्मलेन हो रहा है.... ये धर्म की एक बहुत बड़ी महासभा होगी. स्वामी, आप अक्सर कहा
करते हैं कि आज इस बात की ज़रूरत है कि दुनिया भारत को अध्यात्म की भूमि के रूप में स्वीकार करे.
आपको वहाँ जाकर भारत का प्रतिनिधित्व करना चाहिए.
स्वामीजी : मैं ! अमेरिका में, धर्म-महासभा ! किन्तु ....
खेतड़ी महाराज : किन्तु की कोई बात नहीं,मैं हर चीज़ का प्रबंध कर दूँगा. सिर्फ आप ही हैं जो दुनिया को समझा सकते हैं कि सच्चा धर्म क्या है ? और हमारी प्राचीन धरती को क्या प्रदान करना है. आपने मुझे
बड़ी अच्छी तरह से समझाया.अब आप सारे विश्व को समझाइए. स्वामी ये बहुत बढ़िया अवसर है. सारी
दुनिया को अपने विचारों का उपहार दें. इनकार न करें स्वामी......
स्वामीजी : लेकिन... मुझे नहीं पता कि मैं इस कार्य के योग्य हूँ भी या .....
खेतड़ी महाराज :आप ! योग्य नहीं हैं, स्वामी विवेकानंद योग्य नहीं हैं. आप, सिर्फ आप ही हैं ये काम कर  सकते हैं. मैं यह अच्छे से जानता हूँ और शीघ्र ही सारा संसार जान जाएगा. अच्छा,..अगर आपकी आज्ञा हो, तो
आज मैंने आपके मनोरंजन के लिए कुछ प्रबंध किया है ......( ताली की आवाज़)
 ( नर्तकी का प्रवेश )
स्वामीजी : मुझे क्षमा करना बेटे,..... मैं दूसरे कमरे में रहना चाहूँगा. एक संन्यासी के लिए ,इस तरह के
मनोरंजन की आज्ञा नहीं है.
                           (नृत्य एवं गीत की शुरुआत )
नर्तकी : गीत : हमारे प्रभु अवगुण चित न धरो -२
             समदर्शी है, नाम तुम्हारो -२
                सोई पार  करो ..
          हमारे  प्रभु अवगुण चित न धरो -२
          इक नदिया ,इक नाल कहावत -२
              मैलो नीर भरो-२
         जब मिल गए तब एक बरन भये
             गंगा नाम परयो
       हमारे प्रभु, अवगुण चित न धरो
       हमारे प्रभु, अवगुण चित न धरो.
       हो....हो.....
      तन माया जो ब्रह्म कहावत -२
      सूर सु मिल बिधरो
      के इनको निर्धार कीजिये
      कई पन जात तरो .
      हमारे प्रभु अवगुण चित न धरो
      हमारे प्रभु अवगुण चित न धरो
      हमारे प्रभु अवगुण चित न धरो
  ( विवेकानंद के चरणों में गिर जाती है)
स्वामीजी : हे माँ, मैंने अपराध किया है. मैं यहाँ से जाने के लिए उठ खड़ा हुआ था. मैंने आपका अपमान किया. लेकिन आपके गीत ने मेरी चेतना को जगा दिया. भगवान के सामने पवित्र अपवित्र मनुष्य जैसी
कोई बात नहीं होती. किसी की निंदा नहीं करता. मुझे क्षमा करें .
नर्तकी : ( भाव-विभोर होकर) स्वामी !
सूत्रधार : बड़ा ही भावुक दृश्य था . वास्तव में ईश्वर की नज़र में सब बराबर हैं हम मनुष्य ही स्वार्थ के वश में समाज को बाँटने का काम करते हैं. विद्वता दूसरों को छोटा समझने में नहीं ,अपितु स्वयं को छोटा समझने में
ही व्यक्त होती है. खेतड़ी के महाराज के आग्रह पर स्वामी विवेकानंद शिकागो जाते हैं. क्योंकि वहाँ वे बिना
आमंत्रण गए थे इसलिए उन्हें धाम-संसद में भाग लेने अनुमति नहीं मिली. बड़ी मुश्किल से एक अँगरेज़
विद्वान के सहयोग से उन्हें यह अवसर प्राप्त हुआ. शिकागो की धर्म-संसद में दुनियाभर के विद्वानों के बीच स्वामी विवेकानंद ने किस प्रकार भारतीय संस्कृति का परचम लहराया .अगले दृश्य में देखते हैं...........
                           (शिकागो -भाषण दृश्य)

कार्यक्रम संचालक :

           (शिकागो –भाषण)