रविवार, 26 अप्रैल 2015

अन्धविश्वास या विज्ञान

अन्धविश्वास नहीं विज्ञान

हिंदू महिलाओं में कलाइयों में चूड़ियां पहनना, पैरों में पायल पहनना, माथे पर बिंदी, नाक में कील, गले में मंगलसूत्र आदि पहनना कई लोगों को फैशन से ज्यादा कुछ नहीं लगता होगा।
यहाँ  तक कि इन्हें अपने बुजुर्गों के कहने पर धारण करने वाली महिलाएँ  भी इन्हें बोझ या फैशन समझकर पहन लेती हैं। लेकिन, सिंदूर, मंगलसूत्र, चूड़ियां, लौंग और पायल इन सबसे जुड़ा विज्ञान कम ही लोग जानते हैं। आइए जानें...
1सिंदूर लगाने के पीछे क्या है विज्ञान :
सदियों से विवाहित हिंदू महिलाएँ  माँग  में सिंदूर लगाती रही हैं। सिर के बालों के दो हिस्से(parting) में सिंदूर लगाया जाता है।
इस बिंदु को महत्वपूर्ण और संवेदनशील माना जाता है। इस जगह सिंदूर लगाने से दिमाग हमेशा सतर्क और सक्रिय रहता है। दरअसल, सिंदूर में मरकरी होता है जो अकेली ऐसी धातु है जो लिक्विड रूप में पाई जाती है।
यही वजह है कि सिंदूर लगाने से शीतलता मिलती है और दिमाग तनावमुक्त रहता है। सिंदूर शादी के बाद लगाया जाता है क्योंकि माना जाता है शादी के बाद ही महिला की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं और दिमाग को शांत और व्यवस्थित रखना जरूरी हो जाता है।
2 कांच की चूड़ियाँ :
शादीशुदा महिलाओं का कांच की चूड़ियाँ पहनना शुभ माना जाता है। नई दुल्हन की चूड़ियों की खनक से उसकी मौजूदगी और आहट का एहसास होता है। लेकिन इसके पीछे एक विज्ञान छुपा है।
दरअसल, कांच में सात्विक और चैतन्य अंश प्रधान होते हैं। इस वजह से चूड़ियों के आपस में टकराने से जो आवाज़ पैदा होती है वह नकारात्मक ऊर्जा को दूर भगाती है।
3 मंगलसूत्र पहनने से जुड़ा विज्ञान :
माना जाता है कि मंगलसूत्र धारण करने से रक्तचाप(ब्लड प्रेशर) नियमित रहता है। कहा जाता है कि भारतीय हिंदू महिलाएं काफी शारीरिक श्रम करती हैं इसलिए उनका ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहना जरूरी है।
बड़े-बुजुर्ग सलाह देते हैं कि मंगलसूत्र छिपा होना चाहिए। इसके पीछे का विज्ञान यह है कि मंगलसूत्र (उसमें लगा सोना) शरीर से टच होना चाहिए ताकि वह ज्यादा से ज्यादा असर कर सके।
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4 बिछुआ पहनने के पीछे का विज्ञान :
शादीशुदा हिंदू महिलाओँ में पैरों में बिछुआ जरूर नजर आ जाता है। इसे पहनने के पीछे भी विज्ञान छिपा है। पैर की जिन उंगलियों में बिछिया पहना जाता है उसका कनेक्शन गर्भाशय और दिल से है।
इन्हें पहनने से  शरीर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जैसे - चांदी(आमतौर पर बिछुआ चांदी के होते हैं) होने की वजह से जमीन से यह ऊर्जा ग्रहण करते हैं और पूरे शरीर तक पहुँचाते
हैं।
5नाक की लौंग से जुड़ा विज्ञान : नाक में लौंग पहने के पीछे का विज्ञान कहता है कि इससे श्वास को नियमित रखने में मदद मिलती है।
6कुमकुम से जुड़ा विज्ञान :
कुमकुम भौहों के बीच में लगाया जाता है। यह बिंदु अज्ना चक्र कहलाता है। सोचिए जब भी आपको गुस्सा आता है तो तनाव की लकीरें भौहों के बीच सिंमटी हुई नजर आती हैं।
इस बिंदु पर कुमकुम लगाने से शांति मिलती है और दिमाग ठंडा रहता है। यह बिंदु भगवान शिव से जुड़ा होता है। कुमकुम, तिलक, विभूति, भस्म सब माथे पर ही लगाए जाते हैं। इनसे दिमाग को शांति मिलती है।
7 कान में बालियां, झुमके पहनने का विज्ञान :
कानों में झुमके, बालियाँ  आदि पहनना फैशन ही नहीं। इसका शरीर पर अक्युपंचर प्रभाव भी पड़ता है। कान में छेद कराकर उसमें कोई धातु धारण करना मासिक धर्म को नियमित करने में सहायक होता है।
शरीर को ऊर्जावान बनाने के लिए सोने के ईयररिंग और ज्यादा ऊर्जा को कम करने के लिए चाँदी  के ईयररिंग्स पहनने की सलाह दी जाती है। इसी तरह अलग-अलग तरह की स्वास्थ्य समस्याओं के लिए अलग-अलग धातु के ईयररिंग्स पहनने की सलाह दी जाती रही है।
8 पैरों में पायल पहनने से जुड़ा विज्ञान : चाँदी  की पायल पहनने से पीठ, एड़ी, घुटनों के दर्द और हिस्टीरिया रोगों से राहत मिलती है।
साथ ही चाँदी  की पायल हमेशा पैरों से रगड़ाती रहती है जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फ़ायदेमंद है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मज़बूती मिलती है।
अपने धार्मिक संस्करों को हर एक माँ बाप अपने बच्चों को ज़रूर दें।


अन्धविश्वास या विज्ञान2

J~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ क्या आप जानते हैं कब और क्यों नहीं कटवाना चाहिए बाल.? ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ हमारे यहां रोजमर्रा के कार्यो से जुड़ी भी अनेक परंपराएं हैं। जैसे स्नान के बाद ही पूजा करना, खाने के पहले नहाना, ग्यारस को चावल नहीं खाना, मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को बाल नहीं कटवाना आदि ऐसी ही एक बेहद महत्वपूर्ण और अनिवार्य परंपराओं व नियमों में बाल कटवाने के विषय में भी स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं।  आज भी हम घर के बड़े और बुजुर्गों को यह कहते हुए सुनते हैं कि, शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन बाल नहीं काटवाना चाहिए। पर आखिर ऐसा क्यों? जब हम अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करें तो इन प्रश्रों का बड़ा ही स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान प्राप्त होता है।  विज्ञान के अनुसार सप्ताह में कुछ ऐसे दिन बताए गए हैं जब ग्रहों से ऐसी किरणें निकलती है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। शनिवार, मंगलवार और गुरुवार को निकलने वाली इन किरणों का सीधा प्रभाव हमारे सिर पर पड़ता है। हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण भाग मस्तिष्क ही है, सिर का मध्य भाग अति संवेदनशील और बहुत ही कोमल होता है। जिसकी सुरक्षा बालों से होती है। इसी वजह से इन दिनों में बालों को नहीं कटवाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि मंगलवार को बाल कटाने से हमारी आयु आठ माह कम हो जाती है। गुरुवार देवी लक्ष्मी का दिन माना जाता है अत: इस दिन बाल कटवाने से धन की कमी होने की संभावनाएं रहती हैं। शनिवार को बाल कटवाने से आयु में सात माह की कमी हो जाती है। ज्योतिष के अनुसार मंगलवार का दिन मंगल ग्रह का दिन होता है। शरीर में मंगल का निवास हमारे रक्त में रहता है और रक्त से बालों की उत्पत्ति होती है। इसी तरह शनिवार शनि ग्रह का दिन हैं और शनि का संबंध हमारी त्वचा से होता है। अत: मंगलवार और शनिवार को बाल कटवाने से मंगल तथा शनि ग्रह संबंधी अशुभ प्रभाव झेलने पड़ सकते हैं। इनसे बचने के लिए ही इन दिनों में बाल ना कटवाने की बात कही जाती है। यद्यपि आजकल इन बातों को केवल अंधविश्वास ही माना जाता है लेकिन प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों ने जो परंपराएं बनाई हैं इनका अवश्य ही हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

अन्धविश्वास या विज्ञान

~~~~~~~~~~~~~~~ क्या आप जानते हैं, मृतक का सिर उतर दिशा की ओर ही क्यों रखना चाहिए? ~~~~~~~~~~~~~~~ कहते हैं कि सोते समय सिर दक्षिण में और पैर उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए क्योंकि साधारण चुंबक शरीर से बांधने पर वह हमारे शरीर के ऊत्तकों पर विपरीत प्रभाव डालता है । इसी सिद्धांत पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि अगर साधारण चुंबक हमारे शरीर पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है तो उत्तरी पोल पर प्राकृतिक चुम्बक भी हमारे मन, मस्तिष्क व संपूर्ण शरीर पर विपरीत असर डालता है लेकिन मृतक का सिर हमेशा उत्तर दिशा की ओर रखा जाता है।  हमारे यहां मृत्यु से जुड़ी अनेक परंपराए हैं।इन्हीं परंपराओं में से एक परंपरा है मौत के बाद मृतक का सिर उत्तर दिशा की ओर रखने की।इस परंपरा को निभाते तो अधिकांश लोग हैं लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि मृतक का सिर उत्तर दिशा की ओर ही क्यों रखना चाहिए? दरअसल आत्मा नश्वर है और शरीर नष्ट होने वाला है। जिस प्रकार हम कपड़े बदलते हैं उसी प्रकार आत्मा शरीर बदलती है।  शरीर का अंत मृत्यु के साथ ही हो जाता है। मृतक का सिर उत्तर की ओर करके इसलिए रखते हैं कि प्राणों का उत्सर्ग दशम द्वार से हो। चुम्बकीय विद्युत प्रवाह की दिशा दक्षिण से उत्तर की ओर होती है। कहते हैं मरने के बाद भी कुछ क्षणों तक प्राण मस्तिष्क में रहते हैं। अत: उत्तर दिशा में सिर करने से ध्रुवाकर्षण के कारण प्राण शीघ्र निकल जाते हैं। जीव के प्राण शीघ्र ही मुक्त हो जाते हैं। इसलिए मृतक को हमेशा उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए - - via #MMSSamvaad, download goo.gl/W2Wugj

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

कोहिनूर हीरे की कहानी

क्या आप जानते हैं कोहिनूर हीरे का चौंकाने वाला यह रहस्य ? ~~~~~~~~~~~~~~~ हीरे का नाम जब भी लिया जाता है तो कोहिनूर का नाम सबसे पहले आता है। आखिर हो भी क्यों न यह दुनिया का सबसे बड़ा हीरा जो है। इस हीरे की कहानी उससे भी बड़ी और खतरनाक है जितना बड़ा यह हीरा है। इस हीरे की कहानी की शुरूआत वहां से करते हैं जहां से यह प्राप्त हुआ। वर्तमान आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में स्थित गोलकुंडा के खदान से प्राप्त हुआ था। इसी खान से दरयाई नूर और नूर-उन-ऐन नाम का हीरा भी प्राप्त हुआ था। लेकिन जितनी प्रसिद्घि कोहिनूर को मिली उतनी किसी को नहीं मिली। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता यह हीरा शापित माना जाने लगा पहली बार तब पता चला मनहूस है कोहिनूर कोहिनूर हीरा सबसे पहले किसके पास पहुंचा इसका उल्लेख नहीं मिलता है। हलांकि बाबरनाम में इसका पहली बार जिक्र आया है कि यह 1294 के आस-पास यह ग्वालियर के किसी राजा के पास था। लेकिन इस हीरे को पहचान उस समय मिली जब 1306 में एक शख्स ने यह लिखा कि जो इंसान इसे पहनेगा वह संसार पर राज करेगा लेकिन इसके साथ ही उसका बुरा समय भी शुरू हो जाएगा। शुरू में इस बात को किसी ने स्वीकार नहीं किया लेकिन जब एक के बाद एक घटनाएं होने लगी तब सभी ने इस सच को स्वीकार करना शुरू किया किस किस को किया कोहिनूर ने तबाह काकतीय वंश के अंत के बाद यह हीरा तुगलक वंश के पास फिर मुगलों के पास आया। और जिनके पास भी यह पहुंचा उनका परचम शुरू में तो खूब लहराया लेकिन अंत भी बुरी तरह हुआ। शाहजहां ने कोहिनूर हीरे को अपने मयूर सिंहासन में जड़वाया परिणाम यह हुआ कि पहले उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर दुनिया से चली गई फिर बेटे ने ही नजरबंद करके सत्ता अपने हाथ में ले लिया। 1739 में नादिर शाह का भारत पर आक्रमण हुआ और मुगलों को पराजित करके नादिर शाह कोहिनूर अपने साथ पर्शिया ले गया। नादिर शाह ने ही इस हीरे को कोहिनूर नाम दिया। इससे पहले इसे अन्य नाम से जाना जाता था। कोहिनूर ले जाने के ठीक 8 साल बाद यानी 1747 में नादिर शाह की हत्या कर दी गई यानी कोहिनूर ने यहां भी अपनी मनहूसियत दिखाई अंग्रेज भी बच नहीं पाए कोहिनूर के बुरे प्रभाव से नादिर शाह की मौत के बाद कोहिनूर अफ़गानिस्तान शांहशाह अहमद शाह दुर्रानी फिर उनके वंशज शाह शुजा दुर्रानी के पास आया। लेकिन कोहिनूर के अशुभ प्रभाव के कारण उसकी सत्ता चली गई और वह भागकर पंजाब पहुंचा और कोहिनूर रंजीत सिंह को सौंप दिया। इसके बाद रणजीत सिंह जी की मौत हो गई और सिख साम्राज्य पर अधिकार करके अंग्रेजों ने इस हीरे को अपने कब्जे में ले लिया। आज यह हीरा इंग्लैंड में है। लेकिन इस शापित हीरे के शाप के प्रभाव से बचने के लिए इंग्लैंड की महारानी ने यह वसीयत बनाई कि इसे महिला ही धारण करेगी। लेकिन ऐसा माना जाता है कि इससे भी कोहिनूर का शाप दूर नहीं हुआ और दुनिया भर में फैले अंग्रेजों के साम्राज्य का अंत हो गया

इतिहास के दस गुरु

J~~~~~~~~~~~~~~ *इतिहास के दस महान गुरु* ~~~~~~~~~~~~~~ प्राचीनकाल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। देवताओं के गुरु थे बृहस्पति और असुरों के गुरु थे शुक्राचार्य। भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक महान गुरु-शिक्षक रहे हैं। ऐसे गुरु हुए हैं जिनके आशीर्वाद और शिक्षा के कारण इस देश को महान युग नायक मिले। कण्व, भारद्वाज, वेदव्यास, अत्रि से लेकर वल्लभाचार्य, गोविंदाचार्य, गजानन महाराज, तुकाराम, ज्ञानेश्वर आदि सभी अपने काल के महान गुरु थे  आइए जानते हैं दस महान गुरुओं का संक्षिप्त परिचय… 1. गुरु वशिष्ठ राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरुण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया। सप्त‍ ऋषियों में गुरु वशिष्ठ की गणना की जाती है। 2. विश्वामित्र ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था, लेकिन स्वर्ग में उन्हें जगह नहीं मिली तो विश्वामित्र ने एक नए स्वर्ग की रचना कर डाली थी। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं। …जब विश्वामित्र ने पाया ब्रह्मर्षि-पद भगवान राम को परम योद्धा बनाने का श्रेय विश्वामित्र ऋषि को जाता है। एक क्षत्रिय राजा से ऋषि बने विश्वामित्र भृगु ऋषि के वंशज थे। भगवान राम के पास जितने भी दिव्यास्त्र थे, वे सब विश्वामित्र ऋषि के दिए हुए थे। विश्वामित्र को अपने जमाने का सबसे बड़ा आयुध आविष्कारक माना जाता है। उन्होंने ब्रह्मा के समकक्ष एक और सृष्टि की रचना कर डाली थी। माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ट होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मंत्र की रचना की, जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है। 3. परशुराम जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया जिससे गणेशजी का एक दाँत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया। कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया। असत्य वाचन करने के दंडस्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं। 4. शौनक —शौनक ने 10 हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे। फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है। इसके अलावा मान्यता है कि अगस्त्य, कश्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है। 5. द्रोणाचार्य—-द्वापर युग में कौरवों और पांडवों के गुरु रहे द्रोणाचार्य भी श्रेष्ठ शिक्षकों की श्रेणी में काफी सम्मान से गिने जाते हैं। द्रोणाचार्य अपने युग के श्रेष्ठतम शिक्षक थे। द्रोणाचार्य भारद्वाज मुनि के पुत्र थे। ये संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर थे। माना जाता है कि द्रोण का जन्म उत्तरांचल की राजधानी देहरादून में बताया जाता है, जिसे हम देहराद्रोण (मिट्टी का सकोरा) भी कहते थे। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपि से हुआ जिनसे उन्हें अश्वत्थामा नामक पुत्र मिला। गुरु द्रोण ने पांडु पुत्रों और कौरवों को धनुर्धर की शिक्षा दी। द्रोण के हजारों शिष्य थे जिनमें अर्जुन को उन्होंने विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान दिया। इस वरदान की रक्षा करने के लिए ही द्रोण ने जब देखा कि अर्जुन से भी श्रेष्ठ एकलव्य श्रेष्ठ धनुर्धर है तो उन्होंने एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया। महाभारत युद्ध में द्रोण कौरवों की ओर से लड़े थे। द्रोणाचार्य और उनके पुत्र अश्वथामा जब पांडवों की सेना पर भारी पड़ने लगे तब एक छल से धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट दिया। द्रोण एक महान गुरु थे। इतिहास में उनका नाम अजर-अमर रहेगा। 6. महर्षि सांदीपनि —-भगवान कृष्ण, बलराम और सुदामा के गुरु थे महर्षि सांदीपनि। इनका आश्रम आज भी मध्यप्रदेश के उज्जैन में है। सांदीपनि के गुरुकुल में कई महान राजाओं के पुत्र पढ़ते थे। श्रीकृष्णजी की आयु उस समय 18 वर्ष की थी और वे उज्जयिनी के सांदीपनि ऋषि के आश्रम में रहकर उनसे शिक्षा प्राप्त कर चुके थे।-सांदीपनि ने भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार श्रीकृष्ण ने सर्वज्ञानी होने के बाद भी सांदीपनि ऋषि से शिक्षा ग्रहण की और ये साबित किया कि कोई इंसान कितना भी प्रतिभाशाली या गुणी क्यों न हो, उसे जीवन में फिर भी एक गुरु की आवश्यकता होती ही है। 7. चाणक्य —आचार्य विष्णु गुप्त यानी चाणक्य यानी चणक। चाणक्य को कौन नहीं जानता कलिकाल के सबसे श्रेष्ठ गुरु जिन्होंने भारत को एकसूत्र में बांध दिया था। दुनिया के सबसे पहले राजनीतिक षड्‍यंत्र के रचयिता आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य जैसे साधारण भारतीय युवक को सिकंदर और धनानंद जैसे महान सम्राटों के सामने खड़ाकर कूटनीतिक युद्ध कराए। -चंद्रगुप्त मौर्य को अखंड भारत का सम्राट बनाया। पहली बार छोटे-छोटे जनपदों और राज्यों में बंटे भारत को एकसूत्र में बांधने का कार्य आचार्य चाणक्य ने किया था। वे मूलत: अर्थशास्त्र के शिक्षक थे लेकिन उनकी असाधारण राजनीतिक समझ के कारण वे बहुत बड़े रणनीतिकार माने गए। 8. आद्य शंकराचार्य — स्वामी शंकराचार्य ने भारत की बिखरी हुई संत परंपरा को एकजुट कर दसनामी संप्रदाय का गठन किया और भारत के चारों कोने में 4 मठों की स्थापना की। उन्होंने ही हिंदुओं के चार धामों का पुन: निर्माण कराया और सभी तीर्थों को पुनर्जीवित किया। शंकराचार्य हिंदुओं के महान गुरु हैं। उनके हजारों शिष्य थे और उन्होंने देश-विदेश में भ्रमण करके हिंदू धर्म और संस्कृति का प्रचार प्रसार किया। 9. स्वामी समर्थ रामदास ——आस्वामी समर्थ रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। उन्होंने ही देशभर में अखाड़ों का निर्माण किया था। महाराष्ट्र में उन्होंने रामभक्ति के साथ हनुमान भक्ति का भी प्रचार किया। हनुमान मंदिरों के साथ उन्होंने अखाड़े बनाकर महाराष्ट्र के सैनिकीकरण की नींव रखी, जो राज्य स्थापना में बदली। संत तुकाराम ने स्वयं की मृत्युपूर्व शिवाजी को कहा कि अब उनका भरोसा नहीं अतः आप समर्थ में मन लगाएँ। तुकाराम की मृत्यु बाद शिवाजी ने समर्थ का शिष्यत्व ग्रहण किया। 10. रामकृष्ण परमहंस —स्वामी विवेकानंद के गुरु आचार्य रामकृष्ण परमहंस भक्तों की श्रेणी में श्रेष्ठ माने गए हैं। मां काली के भक्त श्री परमहंस प्रेममार्गी भक्ति के समर्थक थे। ऐसा माना जाता है कि समाधि की अवस्था में वे मां काली से साक्षात वार्तालाप किया करते थे। उन्हीं की शिक्षा और ज्ञान से स्वामी विवेकानंद ने दुनिया में हिंदू धर्म की पताका फहराई।आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं। गुरु पूर्णिमा का महत्व—— व्यास जयन्ती ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। गुरुपरंपरा को ग्रहण लगाया तो सद्गुरु का लेबिल लगाकर धर्मभीरुता की आड़ में धंधा चलाने वाले ‘‘कालिनेमियों ने। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यास’ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति।